“एक-दूसरे के प्रेम में बढ़ते जाओ”
परमेश्वर की दूसरी बड़ी आज्ञा यह हैः “अपने पड़ोसी से वैसे ही प्रेम करो जैसे तुम स्वयं से करते हो” (मत्ती 22: 39) (पहली आज्ञा है कि अपने परमेश्वर से अपने पूर्ण हृदय, अपने सारे प्राण और अपनी सारी समझ से प्रेम करो)
मुझे ऐसा लगता है कि दूसरों से प्रेम करना एक बहुत कठिन कार्य है, विशेषकर जब "दूसरों" ने मेरे साथ बुरा व्यवहार किया हो उदाहरण के लिए जिन्हें मैंने धन उधार दिया और उन्होंने उसे लौटाया नहीं और लौटाने की कोई कोशिश भी नहीं करी। आप शायद इसे भी अधिक मुश्किल परिस्थितियों से होकर गुजर रहे हो जैसे विवाह में अविश्वास योग्य साथी या फिर हिंसक अथवा उत्पीड़न करने वाले माता-पिता ऐसे लोगों से प्रेम करना असंभव लग सकता है।
दूसरो को प्रेम करने में सफलता प्राप्त करने की दो कुंजियां है।
पहला, दूसरो से प्रेम करना एक आज्ञा है एक विकल्प नहीं। जिसने हमें बहुत गहरा दुख पहुंचाया हो उसे प्रेम करने का हमारा मन नहीं करेगा। परन्तु परमेश्वर चाहते हैं कि हम माफ करने का निर्णय ले और गलती होने पर भी उसे प्यार करें। मेरे अनुभव में भावनायें अपने आप आ जायेगी। लेकिन शुरूआत एक निर्णय के साथ होती है-क्षमा करना और प्रेम करना।
हमारा दूसरों को सच्चाई से प्रेम करने का आधार परमेश्वर का हमारे प्रति प्रेम और हमारे द्वारा प्रेम है। उसके प्रेम की कल्पना एक कभी न खत्म होने वाली नदी से करें, जो हमारे अन्दर की ओर और हममें से बाहर की ओर बह रही है। स्रोत वही है। हम जरिया हैं। जो लोग हमें मिलते हैं वह प्राप्तकर्ता हैं-संभवतः ऐसा प्रेम अनुभव कर रहे हो जिस उन्होंने कभी नहीं जाना।
दूसरों से प्रेम करना एक विशेषाधिकार और एक जिम्मेदारी है, जो सीधे परमेश्वर के हृदय से आती है।
आपको किसे माफ करना है ताकि आप उनसे वैसे प्यार कर सके जैसे यीशु ने प्यार किया? क्या आप इस विषय में किसी से बात करना चाहते है?